
सावन मास के पावन आलोक में, श्रद्धा और संकल्प के सहचर्य में, हमने सुल्तानगंज से देवघर तक की चार दिवसीय पदयात्रा का आरम्भ किया। यह मार्ग न केवल चरणों की थकान का परीक्षण था, बल्कि आत्मा के धैर्य, भक्ति और संयम की भी कसौटी सिद्ध हुआ।
प्रथम दिवस संध्या कालीन क्षितिज पर मेघों की मृदुल छाया और मंद-मंद झिरमिराती वर्षा ने हमें अभिषिक्त सा अनुभव कराया। पग-पग पर आस्था के पुष्प बिखरे प्रतीत हो रहे थे। तृतीय दिवस प्रभाकर के कोमल किरणों ने आभा बिखेरी, जिसने हमारे श्रांत अंगों में नवीन उर्जा का संचार किया।
यात्रा में हमारे साथ गृहस्थ-भाव से भोजन की व्यवस्था करने वाले रसोइये भी थे, किंतु द्वितीय दिवस से मार्ग में स्थापित शिविरों की पवित्र सेवाओं का लाभ भी हमें प्राप्त हुआ, जहाँ अन्न-जल सेवा निःस्वार्थ भाव से प्रदान की जा रही थी। यह दृश्य, उन कुछ स्वार्थी दुकानदारों के व्यवहार से विपरीत था, जो आवश्यक वस्तुओं को अंकित मूल्य से अधिक पर विक्रय कर रहे थे। सेवा और स्वार्थ के इस द्वंद्व में, शिविरों का अन्न, मानो करुणा और परोपकार का मूर्त रूप था।

चार दिवसीय यह यात्रा, कभी वर्षा की कोमल बूंदों से स्निग्ध, कभी सूर्यकिरणों से आलोकित, अंततः बाबा बैद्यनाथ के दरबार में समापन को पहुँची। वहाँ जलाभिषेक के क्षण में, सभी थकान, कष्ट और क्लेश मानो शून्य में विलीन हो गए। हृदय में केवल एक भाव रह गया — “हर-हर महादेव!”

असीम कुमार मिश्रा, ग्राम बुनगा, जिला– रायगढ़
