संपादकीयसाहित्‍य

एक मणिपुर सुर्खियों में तो एक मेरे दिल में-आशा त्रिपाठी

कई दिनों से मणिपुर पर लिखने की इच्छा हो रही थी पर कभी दिल तो कभी दिमाग साथ नहीं देता था। अंतत: टलता ही गया पर वर्तमान में अपने ईर्द-गिर्द के माहौल को देखकर लिखना जरूरी सा हो गया। मणिपुर को लेकर सीधे-सपाट शब्दों में कहा जाए तो यह शुरू से ही मैतई राजाओं का प्रदेश रहा जिसे ब्रिटिशरों द्वारा विकास के मद्देनजर एक विदेशी जनजाति (कुकी) का आयात किया। केवल ब्रिटिशर ही नहीं मणिपुर के राजाओं को भी इस कुकी जनजाति को स्थापित करने का श्रेय जाता है। कालांतर में जिन्होंने ईसाई धर्म को अपना लिया पूर्वोत्तर राज्यों में मणिपुर ही क्यों? असम, मिजोरम, मेघालय,अरूणाचल, नागालैंड, त्रिपुरा इन प्रदेशों के नामों से ही क्या आपको नहीं लगता कि इनके मूल निवासी किस जनजाति के थे? कमोबेश यह हाल जम्मू-कश्मीर का भी है फिर ऐसा क्या हुआ कि वहां के मूल निवासियों को अपने अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है। चाहे वह मिजोरम की रियान जनजाति हो, मणिपुर की मैतई हो या कश्मीर के विस्थापित काश्मीरी पंडित। सवाल यह है कि कहीं भी किसी भी कौम से लड़ रहे लोगों में पीडि़तों की श्रेणी में एक खास तबका ही क्यों आता है?

ऐसा नहीं कि इससे पहले मणिपुर एक शांत प्रदेश था, बात जब लेगेसी की हो तो मणिपुर इसे पहले अनेक मर्तबा अशांत हो चुका है। अगर हम मणिपुर के विगत 50 सालों के इतिहास पर नजर डालें तो वहां लंबे अरसे तकरीबन 35 वर्ष तक कांग्रेस का शासन रहा, बीच-बीच में कभी राष्ट्रपति तो कभी स्थानीय राजनीतिक दलों का शासन रहा। इसके बावजूद स्थिरता मणिपुर में कभी नहीं रही। वर्षों तक उसे राष्ट्रपति शासन देखना पड़ा। इसके पूछे मूल कारणों में राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा भी रही। सन 2001 की घटना का उल्लेख जरूरी है जब इरोम शर्मिला चानू जो एक मानव अधिकार कार्यकर्ता रहीं ने सेना के जवानों द्वारा की गई गोलीबारी में 10 ग्रामीण के मारे जाने के विरोध में अनशन की घोषणा की। उनका विरोध अफस्पा (सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून) के विरूद्ध था जिसने फौज और जवानों को असीमित अधिकार दिये थे। विश्व की सबसे लंबी चलने वाली इस अनशन का अंत 2016 में हुआ। अपने इस संघर्ष को तत्कालीन सरकार द्वारा कोई तवज्जों नहीं मिल पाने के कारण अंतत: दुखी और निराश होकर उसने राजनीति में जाने की सोची। राजनीति दलों ने उनसे संपर्क भी स्थापित किया और उन्होंने 2017 का चुनाव कांग्रेस के इबोबी सिंह (तत्कालीन मुख्यमंत्री) के विरूद्ध लड़ा उसे इस चुनाव में मात्र 90 वोट मिले। जबकि नोटा में 143 वोट पड़े थे। एक लंबे अनशन (आइसोलेट कर नाक से खाना देकर) और राजनीतिक दलों की कथनी और करनी का फर्क शायद उसे साफ तौर पर नजर आने लगा। बहरहाल आज वह एक ब्रिटिश नागरिक से विवाह कर दो बच्चियों की मां बन सुखी जीवन बिता रही है। बेशक अन्याय के विरोध की मुखरता उसमें आज भी बरकार है।

दूसरा उदाहरण 2004 में हुई मनोरमा नामक महिला की हत्या का है जिसका आरोप फिर सेना के जवानों पर लगा। कारण जो भी हो क्योंकि जहां मानवाधिकार संगठनों ने इसे बलात्कार-हत्या का मामला बताकर अफस्पा को मुख्य वजह बताया। वहीं सेना ने उस महिला की उग्रवादी संगठन से संलग्न होने की पुष्टि की। अफस्पा का विरोध बढ़ता ही रहा। इसके विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने सेना के इंफाल स्थित मुख्यालय में सेना के विरूद्ध नग्न प्रदर्शन भी किया था। थोड़े बहुत फेर बदल के बाद अंतत: 2022 में मणिपुर के वर्तमान एन बीरेन सरकार द्वारा इसे कुछ जिलों से हटाया गया। मणिपुर में वास्तविक लड़ाई किस बात की है इसे मणिपुर की जनता और राजनीतिक दल बेहतर जानते हैं।

अब बात इन पर नहीं स्त्री अस्मिता पर करें। जब-जब राष्ट्र पर संकट आता है उसकी शिकार अधिकतर महिलाएं ही होती हैं फिर चाहे वह विभाजन की त्रासदी हो या हत्या और बलात्कार की घटना। आज जब कांग्रेस समेत अन्य राजनीतिक दल स्त्री विमर्श पर सवंदेना प्रकट करते हैं तो पीड़ा होती है वह महज रस्मअदायगी लगते हैं। जबकि 2002 से 2017 तक मणिपुर में कांग्रेस की सरकार थी। वर्तमान में मणिपुर में जिन दो स्त्रियों के साथ हुआ वह घटना समूचे मानव जाति के लिए शर्मसार करने वाली है। स्त्री, स्त्री होती उसकी कोई जाति नहीं होती, वह न मैतई न कुकी न हिंदू न मुस्लिम और ना ही अन्य। मणिपुर की घटना के जिम्मेदार एक हद तक वहां के मुख्यमंत्री भी है वह यह कहकर नहीं बच सकते कि उनके कार्यकाल में 1700 करोड़ रुपये के ड्रग्स को जप्त किया गया है। दो स्त्रियों पर हुए अन्याय की गूंज उनके सारे कार्यों पर पानी फेर देती है। ड्रग की जब्ती और स्त्री अस्मिता दोनों अलग मसले हैं। पर सिर्फ मणिपुर ही क्यों अन्य प्रदेश निशाने पर क्यों नहीं, सवाल तो यह भी है कि राजस्थान क्यों नहीं जो बलात्कार के मामले में हैट्रिक लगा चुका है क्या किसी राज्य का मुख्यमंत्री यह दावा कर सकता है कि उसके राज्य में स्त्री सुरक्षित है? फिर महज एन बीरेन की क्यों टारगेटेड होते हैं, फिर मोदी का ही इस्तीफा क्यों मांगा जाता है, क्या अन्य प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में हत्या या बलात्कार नहीं होते? स्त्री या स्त्रित्व को मुद्दा क्यों बनाया जाता है जबकि सैकड़ों मुद्दे और भी हैं विरोध के लिए।

फौजी कार्रवाई के तुरंत बाद उस पर तमाम आरोप लगते हैं। मानवाधिकार, स्थानीय से लेकर कई बार अंतराष्ट्रीय दबाव तक बनाया जाता है लेकिन इन सबसे फौज का कोई नाता नहीं होता वह सिर्फ राष्ट्रहित में अपना कार्य करती है। सेना के अनुशासन को मैंने खुद 20 साल से जिया है। आपदा में ईश्वर से प्रार्थनाएं होती हैं वह आते है या नहीं पर जो सबसे पहले खड़े होते हैं वह हैं फौजी।

मणिपुर एक बेहद खूबसूरत प्रदेश है। मणिपुर ही क्यों पूरा पूर्वोत्तर ही खूबसूरत है। पूर्वोत्तर को प्यार और सम्मान दीजिए क्योंकि हमारा धर्म हमें यह सिखाता है कि पूर्वोत्तर में ईश्वर का वास होता है। फिर मणिपुर तो मणियों का प्रदेश है। मेरे तीनों अपने मणि भी मणिपुर से ही मुझसे अंतिम बार मिलने आए थे। मेरी नजरों में मेरे लिए मणिपुर एक तीर्थ है।

आशा त्रिपाठी, रायगढ़

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