कविता
लक्ष्मी नारायण लहरे ,साहिल,
Shahil.goldy@gmail.com
आहों के बोझ हमसे उठाए नहीं जाएंगे ।
ज़िन्दगी में किए गए झूठे वादे निभाए नहीं जाएंगे
हंसकर जो कदम चले थे निभाने के लिए
वे कदम कहीं भटक गए
उसूल के वे पक्के कभी नहीं थे
वादे और सपने दिखाकर मुंह फेर लिए
बहुत हुआ चर्चा सरे आम मगर
मंजिल पे जाके लुड़ख गए
अपनों से उनका न कोई दारमदार था
वे फक्त अपनी रोटी सेंकने में माहिर निकले
अजब -गजब की है उनके सपने
सपने बेचकर सौदागर बन गए
असल में ओ न सिकन्दर थे
मुक्कदर गढ़ने में फिसल गए
उनके मन में रंजिशें पनपती रही
उन्हें कह दो अब सपने बेचकर सौदागर नहीं बन पाएंगे
गहरे हैं घाव जख्म के
मासूम दिल से दाग कैसे मिटाएंगे
उलुल -जुलुल की बातों पर कोई विश्वास नहीं करता
अपनों को कब तक सपनें दिखाकर मस्का लगाएंगे
एक न एक दिन सारे राज खुल जाएंगे
जो बोए थे झूठ के बीज
वही बीज कांटे बन कर
इंसानियत का रिस्ता क्या निभा पाएंगे
अरे !सपने बेचकर कोई बड़ा आदमी नहीं बना
भला तुम कैसे बन पाओगे
ये जमी है प्यारे
इस जमी में सारे अपने नहीं होते
हर जख्म में दवा काम नहीं आती
प्यार करने वाले बहुत कम मिलते है
रिश्तों में हर कोई अपना नहीं होता
झूठ की नींव से रिश्ता नहीं टिकता
अब न हमसे ये बोझ उठाए जाएंगे
रंजिशें – नफ़रतें हमसे नहीं होता
हमें प्रेम की भाषाएं अच्छी लगती है
यह बात गर तुम समझे होते
तुम्हारे कदम सताए न गए होते
लक्ष्मी नारायण लहरे ‘साहिल,
साहित्यकार ,पत्रकार
कोसीर सारंगढ़
