आलेख : बृंदा करात, अंग्रेजी से अनुवाद : संजय पराते
भले ही सत्तारूढ़ पार्टी ने संसद में विपक्षी दलों के किसी भी हस्तक्षेप को रोका हो, लेकिन उसने बिना चर्चा के सरकारी कामकाज को आगे बढ़ाना जारी रखा। इनमें से एक था वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में संशोधन के लिए एक विधेयक पेश करना। इस विधेयक को संसद के पटल पर रखने के बाद, आश्चर्यजनक रूप से, सरकार ने विधेयक को दोनों सदनों के सदस्यों वाली एक संयुक्त समिति को भेज दिया। जब पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) से जुड़े सभी मुद्दों के लिए संसद की एक स्थायी समिति है, तो सरकार ने इसे दरकिनार क्यों किया? स्थायी समिति के अध्यक्ष और कांग्रेस नेता श्री जयराम रमेश ने प्रक्रिया को अभूतपूर्व और स्थायी समिति के जनादेश का उल्लंघन बताते हुए कड़ी आपत्ति व्यक्त की है, जो एकदम सही है। यह सरकार द्वारा संसदीय मानदंडों और प्रक्रियाओं पर बुलडोजर चलाने का एक और उदाहरण है।
संशोधन विधेयक चिंता का विषय है। यह वन संरक्षण कानून के नियम 2003 में संशोधन के मद्देनजर आता है, जिसे पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफएफसीसी) द्वारा आगे बढ़ाया गया है, जिसमें अत्यधिक आपत्तिजनक कई धाराओं के बीच उनके क्षेत्रों में किसी भी परियोजना के लिए सहमति देने या रोकने के लिए ग्राम सभाओं के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों को समाप्त कर दिया गया है, वन भूमि के डायवर्जन के लिए उदार मानदंड अपनाए गए हैं, वन भूमि के संरक्षण के नाम पर वनों के निजीकरण को बढ़ावा दिया है और वनों पर राज्य सरकारों के अधिकारों को शिथिल करते हुए केंद्र को अधिक अधिकार दिए हैं। इसके साथ ही संशोधित नियम वनों के वाणिज्यिक उपयोग सहित वनीकरण के नाम पर निजी वृक्षारोपण की योजनाओं को बढ़ावा देने का कार्य भी करते हैं।
माकपा ने मंत्री भूपेंद्र यादव को भेजे ज्ञापन में इन संशोधनों का विरोध किया था। सीपीआई (एम) के राज्यसभा सांसद ई. करीम ने इन नियमों को रद्द करने के लिए एक वैधानिक प्रस्ताव पेश किया था। भले ही प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया था, लेकिन किसी न किसी बहाने इस पर चर्चा को टाल दिया गया। इससे पहले सरकार ने पर्यावरण प्रभाव आकलन नियमों में संशोधन किया था। ये सभी बदलाव और अब प्रस्तावित संशोधन मोदी सरकार के ईज ऑफ बिजनेस मंत्र को सुगम बनाने के लिए है।
वर्तमान संशोधन विधेयक आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों पर एक और हमला करता है और कानूनी रूप से भारत को जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिए एकतरफा दृष्टिकोण के आधार पर कार्बन उत्सर्जन के नियंत्रण के लगभग अवास्तविक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बाध्य करता है। यह विशेष रूप से वनीकरण पर ध्यान केंद्रित करता है, जबकि इसके साथ ही विकास के नाम पर वन भूमि के बड़े हिस्से को निजी कंपनियों को हस्तांतरित कर देता है। यह मौजूदा वन अधिकार अधिनियम का सीधा उल्लंघन है और इस आधार पर पहले चरण में ही इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए था।
किसकी “आर्थिक जरूरतें”?
विधेयक की प्रस्तावना में “आर्थिक आवश्यकताएं” शब्द शामिल हैं। यह कहता है : “वनों के संरक्षण, प्रबंधन और बहाली, पारिस्थितिक सुरक्षा को बनाए रखने, वनों के सांस्कृतिक और पारंपरिक मूल्यों को बनाए रखने और आर्थिक आवश्यकताओं और कार्बन तटस्थता को सुविधाजनक बनाने से संबंधित प्रावधान प्रदान करना आवश्यक है।” संशोधन के जरिये किसकी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने की कोशिश की जा रही है? यही विधेयक का सार है। आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के नाम पर सरकार, प्रस्तावित संशोधनों के माध्यम से, वन संरक्षण अधिनियम के नियामक ढांचे के तहत छूट प्राप्त करने वाली परियोजनाओं और भूमि की सूची का विस्तार कर रही है। गौरतलब है कि राज्यसभा में दिए गए एक जवाब के मुताबिक साल 2008-2019 के बीच 2.53 लाख हेक्टेयर वन भूमि विभिन्न परियोजनाओं के लिए डायवर्ट की गई है। इस विधेयक का उद्देश्य कानूनी रूप से इस तरह के डायवर्सन को सुविधाजनक बनाना है।
एफआरए और पेसा का कोई उल्लेख नहीं
विधेयक में आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक रूप से वनों में निवास करने वाले लोगों के स्थापित अधिकारों की सुरक्षा के लिए अन्य कानूनों और संवैधानिक गारंटी का कोई उल्लेख नहीं है। प्रस्तावना में “वन आधारित समुदायों की आजीविका में सुधार सहित वन आधारित आर्थिक, सामाजिक औरर पर्यावरणीय लाभों को बढ़ाने” का उल्लेख है, लेकिन संशोधनों के पाठ में इसका कोई उल्लेख नहीं है। इस प्रकार, यह उन कानूनों के उल्लंघन के अलावा और कुछ नहीं है, जो इस तरह के “सामाजिक और आर्थिक लाभ” और आजीविका में सुधार सुनिश्चित करते हैं।
छूट के माध्यम से उदारीकरण
छूट का मतलब है : पर्यावरणीय प्रभाव आकलन, वन अधिकार अधिनियम (एफआर ए) तथा पेसा के क्रियान्वयन, 2006 के संशोधनों के साथ वन्य जीव सुरक्षा कानून (डब्ल्यूएलपीए) के प्रावधानों के अनुपालन के बिना ही किसी परियोजना के लिए स्वत: मंजूरी मिलना ; जबकि ये कानून अपने गांव के क्षेत्र में किसी भी परियोजना के लिए ग्राम सभाओं की अनिवार्य सहमति निर्दिष्ट करते है।
धारा 1-ए (1) और (2) में किस भूमि और किस प्रकार की परियोजनाओं को छूट दी जानी है, इसका विवरण दिया गया है। धारा (1) में 1996 से पहले शुरू की गई परियोजनाओं को सभी वन भूमि डायवर्जन कानून से मुक्त किया गया हैं। इतने साल पहले शुरू हुई परियोजनाओं के लिए यह एक तार्किक पुष्टि लग सकती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि वन अधिकार अधिनियम के पारित होने के बाद ऐसी सभी भूमि एफआरए के दायरे में आती है और आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों (ओटीएफडी) के अधिकारों की रक्षा करती है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां 1996 से पहले की परियोजनाओं पर इन अधिकारों को अभी तक मान्यता नहीं दी गई है। संशोधन विधेयक ऐसी सभी परियोजनाओं को एफआरए और एफसीए के दायरे से बाहर करने के लिए “वन” को फिर से परिभाषित करना चाहता है। ऐसी परियोजनाओं को छूट देने का मतलब यह होगा कि प्रभावित लोगों का ख्याल रखे बिना ही वन भूमि का उपयोग स्वत: बदला जा सकता है।
धारा (2) में वन भूमि की श्रेणियों की एक विस्तृत श्रृंखला को छूट दी गई है, जो वन भूमि के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करेगी। सरकार इस सारी जमीन पर आदिवासियों और ओटीएफडी के अधिकारों को खत्म करना चाहती है। उदाहरण के लिए, सीमा से 100 किलोमीटर दूर की वन भूमि को एफसीए के नियमों से मुक्त किया गया है। कई पारिस्थितिकीविदों और विशेषज्ञों ने ऐसी भूमि की मात्रा की गणना की है, जो 1.3 मिलियन वर्ग किलोमीटर है। यह भूमि क्षेत्र का लगभग 40 प्रतिशत है, जिसमें से एक बड़ा क्षेत्र वन भूमि है। ये छूट “राष्ट्रीय महत्व की रणनीतिक रैखिक परियोजनाओं” या “रक्षा संबंधी” या “सार्वजनिक उपयोगिता परियोजनाओं” के लिए हैं। इसके अलावा “राष्ट्रीय महत्व” या “सार्वजनिक उपयोगिता” शब्द सरकारी स्वामित्व को निरूपित नहीं करते हैं, बल्कि इसके विपरीत इसमें कॉरपोरेट्स के स्वामित्व वाली निजी संस्थाएँ शामिल हैं। एफसीए के विनियमों से ये छूट कॉरपोरेट्स के लिए रक्षा सहित रणनीतिक क्षेत्रों को खोलने की सरकार की नीति का परिणाम है। यह छूट निजी निवेश के लिए प्रोत्साहन के रूप में हैं। यह वन में रहने वाले समुदायों, मुख्य रूप से आदिवासियों के अधिकारों और आजीविका पर सीधे प्रभाव डालेगा, और यह एफआरए और अन्य कानूनों का पूर्ण उल्लंघन हैं।
केंद्रीकरण
सरकार का दोगलापन
इस विधेयक ने आदिवासियों के अधिकारों के खिलाफ एक आभासी युद्ध की घोषणा कर दी है। एफसीए संशोधन विधेयक इसके शस्त्रागार में एक और हथियार है और इसका विरोध किया जाना चाहिए।

लेखिका माकपा पोलिट ब्यूरो की सदस्य है और महिला व आदिवासी आंदोलन की अग्रणी नेता हैं। अनुवादक छत्तीसगढ़ किसान सभा के राज्य अध्यक्ष हैं।
