संपादकीय

अपमान नहीं मूत्रदान!

व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा

घोर कलियुग और किसे कहेंगे। बताइए, सरासर ब्राह्मणविरोधी दुभांत हो रही है। गाय के मूत्र का तो हर तरह से सम्मान है। पुजारी छींटे मारे, तो पवित्र कर दे। कोई पिला दे तो, यह वाला ही नहीं, अगला वाला जनम भी संवर जाए। गाय सीधे पिला दे, तो मूत्रदान है। पर कोई इंसान, किसी इंसान के सिर पर कर दे, तो अपमान है! और वह भी तब, जबकि मूत्रदान करने वाला शुक्ला हो और मूत्रपान तक नहीं, सिर्फ मूत्रस्नान करने वाला, आदिवासी, नहीं-नहीं सॉरी, वनवासी यानी जंगली हो।

देखिए, देखिए, इसे गोमाता के अपमान का मामला बनाने कोशिश कोई न करे। हम गोमूत्र का सम्मान करते हैं, फिर गोमाता के अपमान की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकते हैं। उल्टे गोमाता के सम्मान का ख्याल है, इसीलिए तो यह कह रहे हैं कि मूत्र किसी का भी हो, मूत्रदान करने को किसी के मान-अपमान का प्रश्न बनाना सही नहीं है। नहीं, हम यह नहीं कह रहे हैं कि प्रवेश शुक्ला का, आदिवासी के सिर पर मूत्रदान करना ठीक था। मूत्रदान करने का वीडियो बनवाना और वाइरल कराना तो खैर सरासर गलत ही था। हमारी संस्कृति में मूत्रांगों का प्रदर्शन हरगिज स्वीकार्य नहीं है। हमारा कहना तो बस इतना है कि मूत्रदान को, मान-अपमान का मामला नहीं बनाया जाना चाहिए। क्यों? अगर मूत्रदान की बदनामी होगी, तो गोमाता का मूत्र कैसे बच पाएगा। गोमाता के सम्मान की खातिर, मूत्रदान के सम्मान की रक्षा करना जरूरी है। यह भी तो हमारी संस्कृति की रक्षा का ही सवाल है। मूत्रदान का अपमान, नहीं सहेगा भारत महान! और हम भारतीय, पश्चिम वालों के इसके बहकावे में हर्गिज नहीं आने वाले हैं कि मूत तो मूत है, किसी का भी हो! इस तरह का झूठा समतावाद, हमारी महान संस्कृति के खिलाफ नास्तिक कम्युनिस्ट टाइप का षडयंत्र है। वर्ना गोमूत्र की पवित्रता अब तो सारी दुनिया स्वीकार कर चुकी है। बल्कि दूसरे देश वालों को तो अब एक ही शिकायत है कि अगर भारतीय गाय का मूत्र पवित्र है, तो विदेशी गायों का मूत्र अपवित्र या कमतर पवित्र कैसे है? कोई-कोई तो भारतीयों पर गो-नस्लवाद का आरोप लगाने की हद तक भी चला जाता है। पर यह सब हमारी महानता से जलने का ही मामला है, वर्ना सभी जानते हैं कि आज तो खासकर खाने-पीने की चीजों में स्थानीय विशिष्टता का बड़ा सम्मान हो रहा है। चमन के अंगूर, तो देहरादूनी बासमती, नागपुरी संतरे, बीकानेरी भुजिया और न जाने क्या-क्या? फिर, भारतीय गो-उत्पादों का विशेष दर्जा क्यों न हो? गोमूत्र, उत्पादन की प्रक्रिया में ही मूत के समान है, वर्ना मूत नहीं, अमृत है। और अमृतपान में कैसा अपमान! और हां! जैसे गोमूत्र, किसी का भी मूत नहीं हो जाएगा, वैसे ही ब्राह्मण का मूत्र भी, गरीब आदिवासी का उद्घार ही कराएगा।

और रातों-रात उद्घार हुआ; हम सबने कैमरे की आंखों से देखा। ब्राह्मण मूत्रसिंचित आदिवासी को नहला-धुलवाकर, नये कपड़े पहनाकर, परिवार समेत सीएम आवास में लाया गया। खुद सीएम द्वारा निज करों से उसका पाद-प्रक्षालन कराया गया। बाकायदा क्षमा मांगी गयी। पीढ़े पर बैठाया गया। पूजनीय बताया गया। नाश्ता-वाश्ता कराया गया। सब देशभर में टीवी पर दिखाया गया। वापसी पर घर नहीं भी छुड़वाया हो तब भी, साथ में कुछ सामान-वामान भी बंधवाया गया। और तो और, उससे डबल इंजन की कामयाबी का विमर्श भी कराया गया। आदिवासी का, इससे ज्यादा उद्घार कोई क्या कराएगा! हमें तो लगता है कि लगे हाथ पांव पखारने वाले पिछड़े सीएम के भी उद्घार का इंतजाम हो गया। आखिर, सबसे बड़ी आदिवासी आबादी वाले राज्य के सीएम के आदिवासी के पांव पखारने का शो टीवी-टीवी दिखाया जा रहा है और चुनाव दरवाजे पर हैं। वाकई बड़ी पावर है, शुक्ला जी के मूत में!

व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।

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